
जितेन्द्र की कलम से- जब इंतजार के लम्हे पिघलने लगते हैं,
हम यूं ही बेपरवाह टहलने लगते हैं,
कुछ कशिश जिंदगी की बाकी रह गयी है दिल में ,
हसरतों के भंवर से खुद ही निकलने लगते हैं।।
2. हालत अब ये कैसे अनजाने हो गये
लोग अब लोगों से बेगाने हो गये,
स्वास्थ्य और शिक्षा को जरुरी था समझा,
इस हालत मे जरुरी मयखाने हो गये।।
3. एक मुद्दत से थी कोई प्यास मुझे,
भूल कर भी भूल ना पाऊँ एसी थी आस मुझे,
दीदार भी हुआ तो आधा नकाब में
हसीन दिन की थी हमसफर सी तलाश मुझे।।